Wednesday, December 19, 2012


दीपक ही जब दिल में अँधेरा फ़ैलाने लगा
रीता घड़ा ही जब मुझे खाने को आने लगा 
तो सिवाय इसके कि मैं दुनियाँ छोड़ दूं 
मुझे इक और राह भी नज़र आने लगा 

गमों की रानी हमारी हमसफर हो गयी 
ज्यूं  ही सोचा कि ये ज़िन्दगी यूं ही बसर हो गयी 
तभी इक नई राह थी हमको नज़र हो गयी 

थक गया फूल दे-दे 'घायल' 
कांटे देने वालों को 
तो यह मन में था आया 
कि क्यों ना शुरू कर दूं 
अब पत्थर देना ईंट वालों को

आंसुओं को था पिया 
गमों को खाया 
दुश्मनों की खातिर भी 
नयनों को था बिछाया 

साँपों को दूध पिलाया 
सारी दूनियाँ के गमों का 
बीड़ा था उठाया 

किसी को गीत सुनाया 
खातिर में किसी की 
साज़ों को बजाया 
बहुत खुश हो गया जिस पर 
उस पर सब राज़ था लुटाया 

बुझते हुए दीपक में भरी 
जोश की ज्वाला 
उसमे कुर्बानी का तेल था डाला
रीता घड़ा भरने को 
उसमे डाला 
कुर्बानी के अमृत का प्याला 
.
.
.
.
मगर  जब आँख बंद कर लें 
तो अँधेरा भी अँधेरा - उजाला भी अँधेरा 
फिर क्या खबर 
कि दीपक जलता है 
या कि बुझ गया 

जब घड़ा रिसता हो 
तो चाहे जितना अमृत डालो
सब निकल जाएगा 
.
.
.
.
.

ऐसा सोच कर- ऐसा विचार कर 
होश में था आया 

सब कुछ विचार किया 
और मानवता को त्याग कर 
इक नया रास्ता अख्तियार किया 
*
*
*
पड़ोस में जलते दीपक को भी 
बुझा दो फूंक मार कर के 
अगर अपने घर में अन्धेरा है 

लोगों के घड़ों को भी तोड़ दो 
लात  मार कर के 
अगर अपना घड़ा रिसता है

आंसुओं को सुखाओ
बीयर और व्हिस्की की आग से 
फूलों को कुचलो 
न्रिशंस्ता के भार से 

ग़र सेवक नहीं रहने देती दुनियाँ
तो हिटलर बन जाओ 
लोगों के अरमानों को 
चाकलेट समझ कर चट्ट कर जाओ 

भगा दो मार कर ठोकर 
आज के इन, दुनिया के ठेकेदारों को 
करो फिर राज्य दुनिया पर 

औ स्वप्न जो विश्व विजय का था 
उसे साकार बना लो 

किसी को मारो ठोकर 
किसी को दुत्कारो 
धो कर हाथ 
बहती गंगा में 
अपने भविष्य को संवारो 
क्योंकि
यही है आज का सफल जीवन 
*
*
*
*
जो अत्याचार करना है कर लो 
मगर 
खुदा के वास्ते 
माँ..............बहिन..............बेटी 
को बलात्कार ......गैंग रेप का 
शिकार न बनाओ 

कोख में ही बेटियों को 
न  मार गिराओ

कुछ तो सोचो
कुछ तो विचारो
अगर स्त्री ही ना रही 
तो जननी कहां से लाओगे 
बिना जननी के 
संसार को आगे कैसे चलाओगे 

ओ........ ओ............. ओ....................बेवकूफ़ो
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो न मारो 
जागो............जागो............अभी भी वक्त है 
अपने आप को ........अपने भविष्य को 
बचा लो ...........संसार को बचा लो ........संसार को बचा लो  

Tuesday, December 4, 2012


जिन्दगी तो सरल ही थी
बना दिया जटिल
मानव के चोंचलों ने
कभी रेडियो से कान नहीं हटते थे
फिर टीवी के दीवाने हुए
मयखाने तो पुरानी बात है
आज इन्टरनेट और
फेस बुक ने
लोग परिवारों से बेगाने किये

सभी अपने-अपने कमरे में कैद
अपनी ही बनाई और बांधी बेड़ियों से त्रस्त
अपनी-अपनी जंजीरों में जकड़े हुए हैं
बतियाने का, किसी को कुछ कहने का
किसी को सुन पाने का
किसी को समझाने का
वक्त ही कहाँ है किसी के पास

फिर कहते हैं जिन्दगी सरल नहीं
हो भी कैसे सकती है


Saturday, December 1, 2012

जीवन ................एक प्रश्न


एक दिन सुबह सैर को जा रहा था कि
अजीब मंजर नज़र आया 

एक वृक्ष की डाली पर बैठी कोयल की 
जीवन व दुनिया भर की मिठास से भरपूर
कुहू-कुहू सुनायी दी 
मानो कह रही हो ...............................................

"जिन्दगी एक ख़ुशी का गीत है"


तभी मुझे एक कीड़ा दिखाई दिया 
जो अभी-अभी काफी प्रयत्न के बाद 
मिटटी के ढेर से बाहर निकला था 
उसके अंदाज़ ने मुझे बताया..................................

" परिश्रम का का ही दूसरा नाम जीवन है"

इस पर खिलती मुस्कराती उभरती कली ने
टिप्पणी दी.........................................................

"बिना उन्नति परिश्रम व्यर्थ है 
 सो निरंतर उन्नति ही जीवन है"


ऐसा सुनते ही एक चींटी जो अपने बच्चों 
के लिए कहीं से ढूँढ कर मिठाई का दाना 
ले जा रही थी, मायूसी से बोली ..............................

" जीवन एक निष्फल परिश्रम मालूम होता है"

अभी चींटी ने ये शब्द कहे ही थे 
की वर्षा शुरू हो गयी 
और बादलों की गर्जना से 
ये शब्द फूट पड़े .................................................

"जीवन आंसुओं का तालाब है"

इस पर  एक पक्षी ने आप्पति की 
जो  अपने घोंसले से निकल कर उड़ान 
भरने की तय्यारी कर रहा था 
उसके अनुसार ....................................................

"जीवन तो आज़ादी का नाम है"
*
*
*
*
*
*
शाम घिर आयी 
वृक्षों की डालियों पर से 
साँय-साँय कर गुज़रती समीर  
मानो कहने लगी .........................................................


"जीवन....चलने का नाम 
   चलते रहो सुबह-शाम "

रात बीत गयी 
परन्तु अपनी व्यथा के कारण
एक बीमार जो साड़ी रात सो नहीं पाया था 
सुबह होने पर कहने लगा ...............................................

"लगातार दुखों की इक कड़ी है जीवन......... बस"

नहीं ...............
तुम ग़लत कहते हो
एक तितली ने इठलाते हुए कहा..........................................

"जीवन तो सौन्दर्य है"

तभी घास पर बैठे एक युगल जोड़े में से 
प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को जीवन की जो 
परिभाषा दी; कुछ इस प्रकार है ............................ 

"प्रेम.........प्रेम..............प्रेम
 बस प्रेम ही जीवन है"                                                                                

तो पास बैठा एक शराबी झट से पूछ बैठा 
"प्रेम................किसका प्रेम...........शराब का ......हा-हा-हा "
हाँ 
उसके लिए तो ...............................................................

" शराब ही जीवन है"

अभी ये बातें हो ही रहीं थीं 
कि पिंजरे में बन्द एक तोता 
चिल्ला उठा ...................................................................

" जीवन कुछ नहीं ............
   बस एक बन्धन है"

नहीं..........नहीं 
दुनिया का ठुकराया
एक व्यक्ति कहने लगा....................................................

"जीवन एक चलती छाया है.......बस"

मैं तो अभी सोच ही रहा था कि जीवन क्या है 
इतने में एक फिल्म के ये बोल जो शायद किसी 
के घर में चल रहे टीवी पर प्रसारित हो रहे थे 
उसके कानों में पड़े ..........................................................


"ज़िन्दगी इक सफर है सुहाना 
  यहाँ कल क्या हो किसने जाना'

मगर दो जून की रोटी न जुटा पाने के कारण
तीन दिन से भूखे "इक बेचारे" को ये सब 
बकवास लगी  और उसने अपने कटु अनुभव का परिणाम 
इस रूप में ब्यान किया .................................................

" जीवन तो एक संघर्ष है"

तो चोर बाज़ार के सरदार के मुंह से 
ठहाके के साथ जो शब्द निकले 
वो कुछ यूं थे........
संघर्ष होगा तुम जैसे भोले-भाले लोगों के लिए 
हमारे लिए तो ...........................................................

"धनोपार्जन ही जीवन है"

एक अमीरजादा जो  ...................................................

"जीवन फूलों की सेज़"
समझता था 
कहने लगा................................................................

"जीवन एक सुंदर वस्तू है............बस"


पास ही कहीं एक महात्मा का सत्संग चल रहा था 
महात्मा जी ने जीवन की व्याख्या करते हुए कहा ............

" जीवन एक अपूर्ण स्वप्न है"

तभी एक खुशकिस्मत 
जिसका स्वप्न पूरा हो गया था 
जिसे दस करोड़ की लाटरी लगी थी 
कहने लगा ..............................................................

"जीवन तो एक वरदान है"

इस पर एक दुखिया युवती 
जिसकी अस्मत राह चलते 
किसी सफेदपोश ने लूट ली थी 
रूंधे गले से बोली......................................................

"जीवन एक जिन्दा लाश है"

तभी किसी गुमनाम कोने से आवाज़ आई .....................

"जीवन एक सवाल है 
 जिसका जवाब है ..............मौत"

*
*
*
*
*
*
फिर तो मानो 
परिभाषाओं की बाढ़ सी आ गयी 
और प्रकृति का कण-कण 
मानो जीवन को परिभाषित करने को 
व्यग्र हो उठा 
वातावरण भारी हो गया 

"जीवन तड़प है............धोखा है...........विछोह है.........चाह है.......परिवर्तन है ......... आशा है.........ठोकर है...........क़ुरबानी है......इत्तेफाक है........राज़ है..........परीक्षा है......"

"जीवन इच्छाओं और आशाओं का ................ ललकार और साहस का.........सुखों और दुखों  आदि का समूह है ..........अमरत्व का शैशव है........ आत्मा के सफर का एक पड़ाव है.....आदि-आदि "

मेरे मन में भी आया की मैं भी 
जीवन को कोइ परिभाषा दूं .....

मैं सोचने लगा
और मुझे याद आने लगे .......

टालस्टाय,रूसो,ह्यूगो,मेनका 
और सुकरात आदि के शब्द  
जो उन्होंने जीवन के बारे में कहे थे 

यदि टालस्टाय के अनुसार ..................................
"जीवन आनंद है......मनोरंजन स्थल है......सेवा सदन है.............."
                                                                    
तो रूसो ने .........................................................
"जीवन को एक मज़ाक माना है ..........                                               

 वे समझते हैं ......
" जीवन परमात्मा का हमारे साथ किया गया मज़ाक है"

                                                                         


विक्टर ह्यूगो ....................................................
"जीवन को एक फूल का करार देते हैं ............जिसका मधु है प्रेम..........."

                                                                         


अगर मेनका ने ...................................................
"जीवन को काफ़ी लम्बा और भरा हुआ माना है ............."

तो सुकरात के अनुसार .........................................
"वास्तविक जीवन तो मृत्यू है........जिससे डरना बुज़दिली है............"

अभी तक मैं इन्हीं विचारों में उलझा हुआ
जीवन की सुलझी हुई, सरल, संक्षिप्त, स्पष्ट, 
सारगर्भित एवंम पूर्ण परिभाषा ढूँढने का प्रयास ही 
कर रहा था कि एक सज्जन 
"ज़िगर" की ये पंक्तियाँ गाते हुए 
मेरे पास से गुज़र गये ................................

" ज़िन्दगी इक हादसा है, और ऐसा हादसा .............
मौत से भी खत्म जिसका सिलसिला होता नहीं ......"
                                                             


ज़िगर का नाम आते ही मेरा कवि हृदय 
भी कल्पनाओं में खो गया ............
कहते हैं ...........
जहां ना पहुंचे "रवि".........वहां पहुंचे "कवि"
और दैवयोग से .
मैं "रवि" भी हूँ और "कवि" भी 
अत: मैंने निश्चय किया 
की जीवन की परिभाषा कहीं अन्यत्र 
खोजने की बजाए क्यूं ना जीवन के विभिन्न 
पहलुओं व आयामों में ही ढूंढी जाए .......
*
*
*
सफर अभी ज़ारी है......
जीवन क्या है ...........
अभी भी ...........प्रश्न बना हुआ है 

"एक शब्द में व्याख्या"
मैं कर नहीं पा रहा हूँ.........

सुझावों व् परिभाषाओं का स्वागत है 




बहुत हो गया
अब कोप भवन ....या गुफा........या समाधि से


बाहर आ जाईये
मुस्कराईये

ज़िन्दगी एक गीत है इसे
गुनगुनाईये

आज बहुत अच्छा मौसम है
रंगीन संडे मनाईये

Wednesday, November 28, 2012

ठंडा-मीठा मौसम है और बागों में बहार है


ठंडा-मीठा मौसम है 
और बागों में बहार है 
यौवन की मदमस्त 
आँखों में खुमार है

फूलों के चेहरे  पे 
मुस्काह्ट आई है
किसी देवकन्या ने 
ज्यूं ली अंगड़ाई है 

ठंडी समीर से 
पत्ते जो हिलते हैं
लगता है ऐसे ज्यूं 
बिछुड़े दिल मिलते हैं 



टकराती हैं टहनियां 
आपस में ऐसे 
मिलते हैं बिछुड़े प्रेमी .
बरसों बाद जैसे

रातों में चंदा की 


चांदनी यूं बरसे है 
कि ठंडी हों आंखें
जो बरसों से तरसे हैं 


रातों को चंदा जो 
लुक-चिप सी करता है 
झीने-झीने पर्दों में ज्यूं 
यौवन थिरकता है 

मासूम मुखड़ों पे 
लाली यूं छाई है
कि परियों की सुन्दरता
ज्यूं यहीं सिमट आई है 

सेब जैसे गालों पे 
मन मदहोश हुआ जाता है 
सूनी काली रातों में
याद कोइ आता है 


भीगी-भीगी पलकों से 
इंतज़ार करते हैं 



कैसे समझाएं तुन्हें 
कि तुझसे  प्यार करते हैं







 



Tuesday, November 20, 2012


जब गम नहीं था तेरा 



गम से बरी हुआ था 


गमगीन तेरे गम में 


गम से बरी हुआ हूँ 


हंसता था रात दिन मैं 


दिल में खुशी नहीं थी 


रो-रो के तेरे गम में 


अब बहुत खुश हुआ हूँ

Monday, November 19, 2012


ऊपर वाले को भी हमारी कमी खलने लगी है 
देखो-देखो मेरी उम्र ढलने लगी है 

एक साल और हो गया कम 
इस जहां की बस्ती अब उजड़ने लगी है 

उलटी गिनती हो चुकी है शुरू
50.51..52...53.....54....55.......56.........
और लो .......... 57   
भी हुए पूरे 

आज न जाने क्यूं 
ये वस्त्र  मैले व् पुराने लगने लगे हैं 

बस अब नये वस्त्र आने वाले हैं 
हम अब यहाँ से जाने वाले हैं 

जो पल बाकी हैं उन्हें हंसते-खेलते गुजारना होगा 
अपनी सब काबलियतों  को निखारना होगा 

आखिर अपने घर वापिस जाना है
उस भेजने वाले को भी तो मुंह दिखाना है 

जल्दी जल्दी  सब समेट लूं 
अपनी आभा को कुछ और निखार लूं

बस इतना समय दे देना मालिक 
अपनी .....
न-न तेरी बिछाई बिसात 
को खुशी खुशी खेल सकूं 

फिर जब चाहे आवाज़ दे लेना
मैं दौड़ा  चला आऊँगा 
तेरे आगोश में सो जाऊंगा 

Sunday, November 18, 2012

कैसा अभागा हूँ मैं




कैसा  अभागा  हूँ  मैं 
जो  वायदा  कर  के  भी  निभा  नहीं  सकता 
खुशी  मिलने  पे  भी  जो  मुस्का   नहीं  सकता 

जिसे  गाना  ना   आये , वोह  तो  गायेगा  क्या 
में  गायक  होते  हुए  भी  जो  गा  नहीं  सकता 


इस  दुनिया  में  रहना  नहीं  चाहता 
इसे  छोड़  के  भी  जा  नहीं  सकता 

लोग  तो  करते  ही  हैं  कामना  स्वर्ग  मिलने  की 
मुझको  मिल  गया  है , फिर  भी  उस को  पा  नहीं  सकता 

प्यासा  ग़र जाये तो  जाये  पास  कूएँ  के 
मगर  जब  कुआँ  चल  के  पास  मेरे  आ  गया  है 

रस्सी  भी  है , और  है  बाल्टी  भी 
मग़र  फिर  भी  पानी  खींच  के 
अपनी  प्यास  बुझा  नहीं  सकता 

कैसा  अभागा  हूँ  मैं 

ਜਦ ਪਾਣੀ ਸਿਰ ਤੋਂ ਲੰਘ ਜਾਵੇ


ਜਦ ਪਾਣੀ ਸਿਰ ਤੋਂ ਲੰਘ ਜਾਵੇ 
ਜਦ ਹੱਦ ਦੀ ਵੀ ਹੱਦ ਗੁਜਰ ਜਾਵੇ 
ਰੋਨਾ-ਕੁਰਲਾਉਣਾ ਸਬ ਬੇਕਾਰ ਹੋ ਜਾਵੇ
ਤਾਂ ਦੱਸੋ ਬੰਦਾ ਕਿਹੜੇ ਖੂਹ ਚ ਜਾਵੇ 
ਸਿਵਾ "ਜੇਹਾਦ" ਦੇ ਜਿਸਨੂ .........
ਹੜਤਾਲ, ਜਾਮ, ਸੰਘਰਸ਼ ਦਾ ਏਲਾਨ 
ਯਾ ਬਗਾਵਤ ਵੀ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ 
ਹੋਰ ਕੋਈ ਰਸਤਾ ਵੀ ਤਾਂ ਨਹੀਂ 
ਭੁੱਲੇ ਬਿਸਰੇ ਹੁਕਮਰਾਨਾ ਨੂੰ 
ਸਹੀ ਰਸਤੇ ਤੇ ਲਿਆਓਨ ਦਾ 

Saturday, November 17, 2012


ये सांसें ऐसा कम्बल हैं 
जिसे हेर कोइ छोड़ने की बात करता है
छोड़ना कोई चाहता नहीं
.
.
.
.
जब छोड़ने का वक्त आता है
तो मन चाहता है 
कुछ पल और-कुछ पल और-कुछ पल और.............

यह कम्बल-साँसों का रिश्ता भी अजीब है 

Friday, November 16, 2012

सुप्रभात गीत ..........शुभ दिन मंगलम


आओ कुछ गुनगुनाएं 
कुछ मुस्कराएं
गीत कोई नया गायें 
.
.
.
.
क्या अद्भुत नज़ारा है 
सुबह का उजाला है 
प्रकृति ने देखो आज कैसा 
चित्र बना डाला है 
.
.
.
.
खुद-बा-खुद संगीत हो गयी है प्रकृति
कितनी रंगीन हो गयी है कलाकृति 
.


.
.
यह कुछ और नहीं आप को
सुप्रभात कहने  का एक 
नया अंदाज़ है 
देखो फिर हो गया 
एक नये दिन का 
आगाज़ है 
.
.
धन्यवाद् दें आओ 





उस ईश्वर  को जिसने हमारे लिए 
ही दुनिया इतनी खूबसूरत बनाई है 
बधाई हो-बधाई हो 




आप को नए मंगलमय दिन की बधाई हो 
.
.
.
नया  दिन आप के लिए नई नई सौगातें लाये 
आपके जीवन को महकाए 
.
.
.
हर पल खुशी से भर जाए 
शुभ दिन मंगलम 

Tuesday, November 13, 2012


स्वर्ग लोक से ............समस्त देवी-देवता 
वैकुण्ठ से .................लक्ष्मी-नारायण
कैलाश से..................उमा-शंकर
ब्रम्ह लोक से............ब्रम्हा 
.
.
.
और 
.
.
.
धरती से .................
.
.
.
.
.
.
.
स्वयं हम ...............
.
.
.
.
अर्थात पूनम-रवि "घायल"
.
.
.
.
.
.
.
आप को दीपावली की 
तहे दिल से 
शुभ-कामनाएं 
देते हैं 


ईश्वर की 
आप पर...........
आपके अपनों पर .........
और सम्पूर्ण मानव जाती पर............... 
दया-दृष्टि व् कृपा दृष्टि बनी  रहे

आने वाला वर्ष
शुभ हो  
मंगलमयी हो 
भाग्यशाली हो 
शान्ति-प्रदायक हो 
और .................
और जो-जो ......
जो कुछ भी सच्चे 
सरल हृदय से मांगे
इश्वर 
सब-की............ 
सब जायज़ इच्छाएं पूर्ण करें 

दीपावली अभिनंदन 

Sunday, November 4, 2012

प्रभु को खुशहाली भा ना सकी


कुदरत का ऐ दुनिया वालो
कैसा दुनिया पर ज़ुल्म हुआ
खिलने से पहले ही देखो
कैसे इक जीवन खत्म हुआ

ना हंसा खेला, खाया न पिया
"घायल" इस दुनिया में वो
दो दिन भी और नहीं था जिया
इस नन्हीं सी उमरिया में
कैसे इक यौवन  खत्म हुआ

इक बाग़ में ..........
लगा पौधा
दिया पानी.........
खिली कलियाँ
था खुश माली

पर हा......
खिली कलियाँ खिली न रहीं
माली की ख़ुशी ना हुई पूरी
बनने से पहले फूल कली
मुरझाई और फिर टूट चली

माझी के हाथों से नैया
डोली और चप्पू छूट चली

जाने कव्वे को क्या था हुआ
इस खिली उभरती कली का जो
जीवन ना "उसे" मंजूर हुआ
झपटा कव्वा .....
टूटी डाली
कब बिखरी कली ना इल्म हुआ

यौवन  पे लाली आ न सकी
प्रभु को खुशहाली भा ना सकी

ऐ प्रभू मुझे तू बता ज़रा
क्या मासूम पे भी तुझे
दया आ ना सकी

मेरे देखते-देखते ही देखो
कैसे इक जीवन खत्म हुआ

इस इतनी लम्बी दुनिया में.........
क्या तुझे ना कोइ और मिला
ऐ मौत तुझे था यहीं आना
क्या नहीं कोइ दूजा ठौर मिला

देखो-देखो दुनिया वालो
क्या यौवन-औ-मौत का मिलन हुआ

जिसने ना कभी रोना सीखा
जो हर पल ही मुस्काया था
कैसे हंस कर उसने देखो
मृत्यु को भी गले लगाया था

तुझे शर्म ना आई ऐ भगवन
जब ऐसी मौत को देख के भी
तू मन्द-मन्द मुस्काया था

सच ही लोगो ये कलयुग है
इसमें जो भी हुआ
वो कम ही हुआ
कुदरत का ऐ दुनिया वालो
कैसा दुनिया पर ज़ुल्म हुआ


Saturday, October 13, 2012


आवाज़   आती  है 
समाजवाद  आ  रहा  है 
मिनिस्टरों  के  वायदे 
इलेक्शन   के  समय  के  पूरे  हो  रहे  हैं 
(मगर  उनके  अपने  ही  अर्थों  में )

हर  तरफ  तरक्की  हो  रही  है 
अमीरों  की  अमीरी  
गरीबों  की  गरीबी 
                                    बढ़  रही  है 








गरीबी  को  मिटाया  जा  रहा  है  
गरीबों  को  मिटा  कर 
हो  रही  है  ना  तरक्की 

अनाचार 
पापाचार  
दुराचार  
अत्याचार  
कु-विचार 
व्याभिचार
भ्रष्टाचार  
और  ना  जाने 
कौन-कौन  से  आचार  
पनप  रहे  हैं 
यूं  लगता  है 
मानो  सतरंगा  आचार  तैयार  हो  रहा  हो 
(मगर  इस  में  सदाचार  का  नाम  नहीं )


बच्चों  के  भूख  से  तड़पते  चेहरे 
अपनी  कोमलता  खो  चुके  हैं  
आज  मैं  देख  रहा  हूँ 
भारत  के  लाल  कली  से  फूल  बनने  से  पहले  ही 
मुरझा  रहे  हैं 

अरे  भाई 
तरक्की  हो  रही  है 
समय  की  कमी  है 
सब  काम  जल्दी-जल्दी  
करने  पड़ रहे  हैं 
तभी   तो  जिंदगी  का  सफ़र  छोटा  रह  गया  है 
जवानी   की  क्या  ज़रूरत  है 
लोग  बचपन  से  सीधे  ही 
बुढापे  में  कदम  रख  रहे  हैं 

क्या  यह  तरक्की  नहीं 

काम  नहीं  तो  दाम  नहीं 
(नो-वर्क  नो-पे )
यह  भी  तो  एक  समाजवादी  नारा  है 
जो  काम  नहीं  करता 







उसे  खाने  का  क्या  हक़  है ?
इसे  किस  खूबसूरती  से  पूरा  किया  जा  रहा है 
की  छे (6) साल  का  बच्चा 
हाथ  में  बुर्श  लिए 
पूंजीपतियों  के  जूते  चमका  रहा  है 
भई  ठीक  ही  तो  है 
काम  नहीं  करेगा  तो  कमाएगा  क्या 
और  कमाएगा   नहीं  तो  खायेगा  क्या 
यही  तो  समाजवाद  है 

कल  
एक  नेता  जी  भाषण  दे  रहे  थे 
कह  रहे  थे 
देश  को  तरक्की  की  ओर बढ़ाओ
जागो  देश  के  युवको 
"जाग्रति" लाओ 
हम  सभी  मिल  कर 
 "चेतना " लायेंगे 

और  शाम  को  कोठी  पहुंचे 
पी.ए  को  आवाज़  दी  
मेहता  जी  "चेतना" लाओ 
और  ठीक  आधे  घंटे  बाद 
"चेतना" आ  गयी 

असल में "चेतना " उस लड़की का नाम था 
जो जलसे मैं नेता जी का भाषण सुनने 
आई थी 
नेता जी को भा गयी 
और बिन माँ बाप की बच्ची


छोटे-छोटे बहिन-भाईओं की भूख 
बर्दाश्त न कर सकी और 
चंद सिक्कों के लिए 
नेता जी के पहलू में आ गयी

हो  गयी  न  तरक्की 
आ गया न समाजवाद 













Wednesday, October 10, 2012


मर्द  कमीने  होते  हैं 



मैं  
इश्क  की  दुनिया  से  दूर ................... 
बहुत-दूर  निकल  आया  हूँ 
अपनों  ने  भुला  दिया  है 
ऐ-बेगानों 
अब  तुम्हारे  पास  आया  हूँ 


गैरों  की  महफ़िल  में  बैठा  हूँ  
फिर  भी  सब  अपने  से  लगते  हैं 
कल  रात  अपनों  में  गया  था  पाया 
सब  चेहरे  धुंधले  लगते  हैं 

और  निकट  गया 
फिर  भी  चेहरे  ना  साफ़  हुए 
पुछा 
क्यों  भाई 
तुम्हारा  चेहरा  धुंधला  क्यों  है 
क्या  मूंह  काला  कर  लिया  है 


बोला  अपना 
क्या ....    
पी ...कर  आये  हो 


हाँ ....पी  कर ही  आया  हूँ  भाई 
अब  बिन  पिए  रहा  भी  तो  नहीं  जाता  है 
.
.
.
.
.
अपने  से  ही  पुछा 
क्यूँ  पीते  हो  'घायल '
कुछ  समझ  नहीं  आया 


बोले  अपने 
पी  कर  क्या  ख़ाक  समझ  आएगा 


मैंने  कहा 
तुम  भी  पी  लो  थोड़ी  सी 
मन  बहल  जाएगा 




बोले  अपने  बहल  नहीं .........
बहक  जाएगा 

.
.
.
नहीं ................
बहका  तो  पहले  था 
अब  ही  तो  होश  में  आया  हूँ 


अपने  हँसते  हैं 
अपना  ही  मूंह  काला  कर  के 
और  फिर  
जब चेहरे  ना  पहचाने  जाएँ 
तो  कहते  हैं 
क्यों  भाई पी  कर  आये  हो 

खैर  छोड़ो   कल  की  बात 
रात  गयी ..........बात  गयी 
कोइ  और  किस्सा  छेड़ें
*
*
*
*
*
*
कहते  हैं 
लड़की  की  
शादी  के  बाद 
दुनिया  बदल  जाती  है 


अपने  बेगाने  और ........बेगाने  
अपने  बन  जाते   हैं 
काश  मैं  भी  लड़की  होता 
और  मेरी  भी  दुनिया  बदल  जाती 




कल  एक  लड़की  कह  रही  थी 
मर्द  'कमीने '  होते  हैं 
*
*
*
*
*
*
मगर  मैं  तो   नहीं  कह  सकता 
मर्द  जो  हूँ  भाई 
मर्द  हो  कर , 
मर्द  जात  पर 
कीचड  कैसे  उछालूँ 
हाँ  अपने  पैर  उछाल  सकता  हूँ 




किसी  ने  कुछ  माँगा  था 
दे  नहीं  पाया 
सोचा .........वापिस  आये ........ना  आये 
क्या  भरोसा 
*
*
*
*
किसी  पर  विश्वास  भी  तो  नहीं  रहा 
यहाँ  तक .......कि  ......अपने  पर  भी  नहीं 


वोह  ...............क्या  था --इक  गाना 
"आस  नहीं , विश्वास  नहीं "
मेरा  मन  मंजिल  के  निशाँ  ढूंढें .......


विश्वास  हो  कैसे 
जब  आस  ही  नहीं 
और  फिर  मंजिल  होगी  
तभी  तो  निशाँ  ढूंढेंगे 


मंजिल  तो  बहुत  पीछे  छोड़  आया  हूँ 
अपनों  में  ही  अपना  
ढूंढते-ढूंढते  
इतना  आगे  निकल  आया  हूँ  कि 
चलते-चलते  कदम  थक  से  गए  हैं 





मगर  शायद 
शायद  क्या, सच  ही  तो  है 
कोइ  अपना  उठा 
और  बेगानों  की  महफ़िल  में  जा  बैठा 


अब  उस-के  मुकाबले  में 
कव्वाली  भी  तो  नहीं  गा  सकता 
क्या  हुआ  जो  सामने  वालों  में  आ  गया 
कभी  तो  अपना  था 


फिर  बहक  गया  हूँ  शायद 
मगर  आज  तो  नहीं  पी 
फिर  यह  चेहरे 
नए-नए  से  क्यूं  लगते  हैं 


हाँ  याद  आया 
में  अपनों  से  दूर 
बे-गानों  में  जो  चला  आया  था 


मगर  
कुछ  चेहरे 
जाने  पहचाने  भी  तो  हैं 
शायद  कुछ  अपने  ही 
बेगानों  में  चले  आये  हैं 
शायद  कुछ  अपने  ही 
बेगाने  हो  गए  हैं