Friday, September 28, 2012



दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं
सब अपने चेहरों पे दोहरी नका़ब रखते हैं

फना हो जाते हैं दोहरे मुखोटों वाले
नकाबपोश को कोई पसंद नहीं करता
आज के दौर मैं अगर
दोहरी नकाब रखने की ख्वाहिश है
तो इंसानियत को छोड़ना होगा
दादाओं का साथ अपनाओगे
तभी नकाबपोश रह पाओगे


हमें चराग समझ कर बुझा न पाओगे
हम अपने घर में कई आफ़ताब रखते हैं

नकाबपोश कभी चराग हो ही नहीं सकते
रात्रिचर के घर कभी आफताब नहीं मिलता
वोह तो अँधेरे के पंची होते हैं
अंधेरों मैं ही जीते और अंधेरों मैं ही मरते हैं

बहुत से लोग कि जो हर्फ़-आश्ना भी नहीं
इसी में खुश हैं कि तेरी किताब रखते हैं

हर्फ-आशना होने से इल्म नहीं आता
किताब रखने वाले सिर्फ किताबी कीड़े होते हैं


ये मैकदा है, वो मस्जिद है, वो है बुत-खाना
कहीं भी जाओ फ़रिश्ते हिसाब रखते हैं

फरिश्ते-औ-इंसान ही रख सकते हैं हिसाब
वरना....मैकदे, मस्जिद, बुतखाने में
फर्क क्या है "घायल"
परिंदे इन सब को
एक ही कतार रखते हैं


मंदिर ने मस्जिद .....................................................
के गले में हाथ डाल कर पूछा ............


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कुशल तो है 
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मस्जिद ने मायूस हो कर 
कहा.............
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सब बन्दों की मेहरबानी है 



हम तो मुफ्त में 

बरसों से बदनाम हैं .
.
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लेकिन जो सवाल 
तुमने मुझसे पूछा
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आओ यही सवाल 
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गुद्वारे से......चर्च से........



और आज के इन 

मठाधीशों से करें



हमारे शहर के मंजर न देख पायेंगे
यहाँ के लोग तो आँखों में ख्वाब रखते हैं

ये किस ने कह दिया कि
मंजर देखना हो, तो आँखों में ख्वाब होना
इक ना-क़ाबलियत है
हम तो समझे थे
अल्लाह और मंजर
बंद आँखों से ही नजर आते हैं



सज़दे के लिए उठता है 
ये दस्त हज़ार बार 
पर सोच के रुक जाता हूँ 
किसको करूं सलाम 

उनके आने का गुमां सा होता है 
न जाने कितनी बार 
पर सोचता हूँ हर बार 
शायद हसीं ख्वाब ना हो 

मानी थीं मन्नतें 
जो उनके 
अहले कर्म की
अब तो है यही इल्तज़ा
की वो ख़ुदा को ना याद हों 

है गर्दिशे अय्याम 
कुछ रास यूं आया 
आरज़ू है कि 
और कोइ मुकां ना हो 

उम्मीदों कि लाश पे 
खड़ी है ये
जर्ज्रे जिंदगी
है कौन इसका वाली
ना मालूम 
कब रूह फ़ना हो 

जद्दोजहद क्या करे 
"घायल" अब मौत से
जब सांझ ढल चुकी है 
तो क्यूं ना रात हो 

Tuesday, September 25, 2012

रोज़ मेरे ख्वाब विच आया करो

जिंदगी नूं दर्द दे जाया करो




जिंदगी नूं जिंदगी दा वास्ता 


बेगुनाहाँ नूं ना तडपाया करो


एस थां ते हासेयाँ दी है सजा 


दोस्तों बहुता ना मुस्काया करो


ज़ुल्म मेरे ते 


ते गैरां ते कर्म 


आपने हाँ 


कुझ तरस खाया करो




मैनु करके "घायल"


जख्म जो दित्ते तुसां 


मरहम जे नहीं 


लूण ना पाया करो


आओ शब्दों को हम
जीवन की धरती से उठा
कागज़ की धरती पर ले आयें

या फिर उन्हें सहेज कर किसी
सुरक्षित जगह रख दें

भूखे पेटों को
जब निगाहें उठाये
देखेंगे आसमां की ओर

इन्ही शब्दों से
भूखों की भूख
मिटाई जायेगी

Monday, September 24, 2012



गम  को  ख़ुशी  में  जो  बदल  सकता  है
लेफ्ट  को  राईट ..
और  राईट  को  लेफ्ट  कर  सकता  है
रौंग  जो  किसी  को  भी  न  रहने  दे ...

जुलम ...
दुःख ...
तकलीफ ...
किसी  को  अकेले  न  सहने  दे ...

शब्दों  को  जो
कागज़  की  धरती  से  उठा ..
हकीकत  की  धरती
पर  ले  आता  हो ...
बेगानों   से  भी
जिस -का ...
बहुत  नज़दीक  का  नाता  हो ...

घायल ...
उसी  बेवकूफ  का ...
नाम  है ....

हाँ ..जी ...हाँ ...

घायल ...उसी  बेवकूफ  का ...नाम  है ....


दरिया दिल हो
तो दरिया बनो

कतरा कतरा क्यूं
करते हो
यूं कतराने से
काम नहीं चलने वाला
"घायल" इक 'शै' है
न सम्भलने वाला

संख्या क्यूं पूछते हो
सब........... जो हैं
समर्पित कर दो

Sunday, September 23, 2012


खुदा तेरी रहमत का साया बहुत है
जरूरी नहीं तू गले से लगाये 

है काफी बस इतना 
कि रोयें अगर हम 
तू दे कर तस्सल्ली 
ज़रा मुस्कराए 

वो शैतान क्यूँ बन गये 
राज़ क्या है 
या कह दे नहीं हैं 
वो हव्वा के जाए 

यहाँ से ख़ुशी 
भागती जा रही है 
लपकते चले आ रहे
गम के साये

चमन की ज़रा बेकसी 
देखना तुम 
की खुद बागबां अपना 
आशियाँ जलाए 

मेरी मौत पर 
हंस रहा था जमाना 
फरिश्तों के आंसू 
मगर रुक न पाए 

है काफी कि मालिक
निगाहों में तू है 
"घायल" तुझे नींद आये न आये 
(कब्र में)

Saturday, September 15, 2012


बस के 
कंडकटर सी 
बन गयी है 
जिंदगी 


सफर भी 
खत्म नहीं होता 

और 

जाना भी कहीं नहीं 

इक सूनी सी राह .... लेकिन .. उसके लौट आने की चाह ...


इक सूनी  सी राह ....
लेकिन ..
उसके लौट आने की चाह ...

क्यूँ कि चाह तो चाह होती है 
चाह पर किसी का वश नहीं होता

क्यूँ  भाती हैं  मुझे सूनी-सूनी सड़कें ,
क्यूँ  तकती हूँ  मै इन राहो को,

इन राहों से 
लगता कोई पुराना नाता है 
यहाँ आ कर कोई जो दिल-आत्मा में 
बसा है याद आता है  

क्यूँ  फैली हुई दिखती हैं बादलो की तरह, 
तुम्हारी बाहें, जिन्हें देख कर 
उदास मन  खिल जाता है,

जब प्यार सच्चा हो 
तो हर शै में उस-की ही 
तस्वीर नज़र आती है 
और आखिर में तस्सवुर बन जाती है 


हर आहट पर,
क्यूं बादलों  की उमड घुमड दस्तक देती है मेरे मन पर ,
की तुम आओगे  
तुम जरूर आओगे  ...






 विश्वास है तो आएगा 
हर हाल में आएगा 
उसे आना ही होगा 
बिना आये वो 
रह ही ना पायेगा 




और इसी चाह में ,
इसी राह पर 
मील का पत्थर हो के 
रह गयी हूँ मै ,
सिर्फ तुम्हारे लिये ......

मील का पत्थर हो या 
लाईट हॉउस 
औरों को राह दिखाता है 
कालान्तर का ध्रुव तारा बन जाता है 

ध्रुव तारे की महत्ता से हर कोई वाकिफ है 
इस से सिद्ध होता है की तू भी ध्रुव तारे के माफिक है 

Monday, September 10, 2012

यारो उस-से मिलने की कोई सूरत तो बता दो .......मुझे मेरा प्यार वापिस दिला दो


मेरा इक मित्र है
सब उसे लुव गुरु कहते हैं

इक दिन मुझे मिला
और रटा-रटाया जुमला दाग दिया
क्या हाल बना रखा है
दाढ़ी को मजनू की तरह बढ़ा रखा है
किस बात का गम है
मुझे बताओ
कुछ तो समझाओ
आखिर मित्र किस दिन काम आते हैं

यूं ही उसे परखने के लिए
मुंह से निकल गया
.
.
.
.
.
अपना प्यार अपना न रहा हो
उसे पाने का कोई उपाय सुझाओ
लुव गुरु अपने गुरु होने का कर्तव्य निभाओ
मैं उलझ गया हूँ
मेरी उलझन सुलझाओ
मुझे मेरा प्यार वापिस दिलाओ

मित्रों ने पूछा
कहाँ  खो  गया  आपका  प्यार ...?

मैंने कहा
अगर मुझे पता ही होता
तो तुम लोगों
के आगे क्यों रोता

बातें करने से बात नहीं बनने वाली
मुझे तो चहिये वापिस मुझे प्यार करने वाली
यारो उस-से मिलने की कोई सूरत तो बता दो
मुझे मेरा प्यार वापिस दिला दो
नहीं तो मुझे माटी की मूर्त बना दो

मित्रों ने शायद शब्दों का अर्थ गलत लगा लिया
और एक नया सवाल मुझे थमा दिया
कहने लगे ..............
सूरत  तो  आप  ही  बताओगे  ..
तभी  ना  जाके  उसे  पाओगे ..


   
 मैंने कहा
सूरत है भोली भाली
पर दिल की है इकदम काली
वो है मेरी घर वाली

जीना दूभर कर रखा है
धोबी का कुत्ता
न घर का न घाट का
बना रखा है

प्यार की बात करता हूँ तो डांटती है
शब्दों में जैसे जहर भरा हो
ऐसे बात-बात पर
नागिन की तरह फुफकारती है


व्यथा किन शब्दों में बयाँ करूं
कैसे मैं किस्सा घर का सरे आम करूं













सूरत से भोली भाली है
 पर                         
 दिल की इकदम काली है






                         






















Sunday, September 9, 2012

औरों के कन्धों पे


जिंदगी तो
अपने ही
दम पे
जी जाती है
.
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औरों के
कन्धों पे तो
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.
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जनाज़े
उठा
करते हैं

मंज़िल मौत है और मैं . . . सफर में हूँ


मिट्टी का
जिस्म ले के
पानी के घर में हूँ
.
.
.

मंज़िल मौत है
और मैं
.
.
.
सफर में हूँ
.
.
.
होगा कत्ल मेरा
मालूम है

लेकिन
खबर नहीं

किस कातिल
कि नजर में हूँ

क्षमा क्या है


परमात्मा ने पूछा
क्षमा क्या है
.
.
.
.
.
एक छोटी बच्ची
ने उत्तर दिया
.
.
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.
येह
वो अद्भुत
अनोखा
फल है
.
.
.
जो कि पेड़
.
.
.
किसी पत्थर मारने
वाले को देता है

दफनाने के बाद . . . . जलाया नहीं जाता


वो आती है रोज़
मेरी कब्र पर
.
.
.
अपने
नये
.
.
हमसफर के साथ



कौन कहता
है कि

दफनाने के बाद
.
.
.
.
जलाया नहीं  जाता

मत कर इतना गरूर


मत कर इतना गरूर
अपने आप पे ऐ इन्सान
.
.
.
.
.
.
.
न जाने कितने
तेरे जैसे
.
.
.
.
खुदा ने
बना-बना के


मिटा दिए

Saturday, September 8, 2012

मंदिर ने मस्जिद 
के गले में हाथ डाल कर पूछा ............

.
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.
कुशल तो है 
.
.
मस्जिद ने मायूस हो कर 
कहा.............
.
.
.
सब बन्दों की मेहरबानी है 

हम तो मुफ्त में 
बरसों से बदनाम हैं .
.
.
.
लेकिन जो सवाल 
तुमने मुझसे पूछा
.
.
.
.
आओ यही सवाल 
.
.
.
.
गुद्वारे से......चर्च से........

और आज के इन 
मठाधीशों से करें

निर्भय वक़्त की 'ऐश-ट्रे'
______________________

मुझ में अपने अरमानों की
चिता जलाने का सहस है

मेरे गीतों के
प्रतीक , प्रतिमान ..............मूल्य
सब टूट गए हैं

निर्भय वक़्त की एश-ट्रे में
सुंदर सपनों की राख पड़ी है

सभी कल्पनायें झूठी थीं
बारी-बारी सब टूटीं

सब विश्वास खोखले निकले
सभी आस्थाएं झूठीं

Thursday, September 6, 2012


कुछ प्रश्न गुदगुदाते हैं, अच्छा लगता है.

जब उन प्रश्नों के उत्तर भी प् जाओगे 
तो कल्पना करो कैसा लगेगा 

जब आप मुस्कराते हैं, अच्छा लगता है.

मेरे मुस्कराने की 
न तो कोई वजह है 
और न ही इसमें कोई खूबी
जब तुम मुस्कराओगे 
तो क्या बात होगी 

वो हसीन नज़ारा नहीं जिनको मयस्सर,

नज़ारे के हसीन होने के कोइ मायने नहीं 
जब तक 
हसीन दिल 
और दिल की गहराइयों में
कैद आत्मा 
तक बाग-बाग न हो जाये   

तस्वीर बनाते हैं, अच्छा लगता है.

तस्वीर बनाने से भी कभी तस्वीर बनी है 
तस्वीर को देख तस्वीर होना पड़ता है
जब तुम सामने आते हो अच्छा लगता है
और तस्वीर तो खुद-ब-खुद ही बन जाती है 

अब नहीं हसीन लगते हैं ख्वाब जन्नत के

ख्वाबों के बहकावे में आये ही क्यूँ 
हकीकत को जो आजमा लेते 
मायूस न होते 
और जन्नत का दीदार क्या कभी किसी ने किया है 
हमारा साथ निभाते तो यहीं जन्नत होती 

आपके घर आते हैं, अच्छा लगता है

मेरा घर भी कोई घर है
ईंट पत्थर से बनी इमारत घर हो भी कैसे सकती है
आप आते हो तो वो घर सा हो जाता है 
इनायत है आपकी कुछ पल के लिए ही सही घर तो कहलाता है



पतंगें  उड़  रही  थीं
हाँ ...पतंगें  उड़  रही  थीं
काली , नीली , पीली , लाल
हरी , जामुनी  और  नारंगी

कि  पक्षी  जा  रहे  थे
हमें  यूं  बता  रहे  थे

यह  ज़िन्दगी
छोटी  सी  है
आखिर  सभी  ने  जाना

इस  दुनियां  में ...इस  घर  में
इस  गाँव  में ...नगर  में
'तनपुर' में
नहीं  है
किसी  का  भी
पक्का  ठिकाना

पतंगें  उड़  रही  थीं
वोह  ज्यूं  बता  रही  थीं
यूं  ही  आत्मा  उड़  जायेगी,
उस  दीप  में  मिल  जायेगी
बनाया  जिस-ने  सब-को  है
कि  मिलना  जिस-में  सब-को  है

कि  पक्षी  जा  रहे  थे
वोह  यूं  बता  रहे  थे

आज  यहाँ-कल  वहाँ
रहना  किस-को  है  यहाँ
क्षण-भंगुर  है  जहाँ

पतंगें  उड़  रही  थीं
कि  पक्षी  जा  रहे  थे

Tuesday, September 4, 2012


मुहब्बत  के   सपने  दिखाते  बहुत  हैं 

     हमारा साथ अपनाओ 
      सपनों को हकीकत में बदलने का 
      नुस्खा हमारे पास है 

वो  रातों  में हम  को  जगाते   बहुत   हैं 
   
        हमारे पहलू मैं आओ 
      लोरी सुना के सुला देंगे 

मैं आँखों  में काजल  लगाऊँ तो  कैसे 
इन  आँखों  को  लोग  रुलाते  बहुत  हैं 

          आंसुओं को पी जायेंगे 
       रुलाने वालों को इतना रुलाएंगे
       कि वो रोना और रुलाना 
       दोनों भूल जायेंगे 
       फिर अपने हाथों से 
       पलकों को उठा  
       उँगलियों के पोरों से 
       खुद आप कि आँखों में हम 
       काजल सजायेंगे 


Monday, September 3, 2012



















मैं
अपनों  से  दूर..........
बहुत  दूर
निकल  आया  हूँ

जो  अपने .......
अपने  हो  कर भी .......
अपने ना  हों


उन  अपनों  में
अपना-पन
कैसे  ढूँढूँ




अब  तो  यूं  लगता  है
मैं से  भी
मेरा  नाता
टूट  सा  गया  है मैं  खुद  भी
अपना  नहीं  रह  गया  हूँ









मुझ  में से  कोई
मुझको
निकाल ले  गया  है


केवल  लाश
लिए  फिरता  हूँ