Tuesday, December 4, 2012


जिन्दगी तो सरल ही थी
बना दिया जटिल
मानव के चोंचलों ने
कभी रेडियो से कान नहीं हटते थे
फिर टीवी के दीवाने हुए
मयखाने तो पुरानी बात है
आज इन्टरनेट और
फेस बुक ने
लोग परिवारों से बेगाने किये

सभी अपने-अपने कमरे में कैद
अपनी ही बनाई और बांधी बेड़ियों से त्रस्त
अपनी-अपनी जंजीरों में जकड़े हुए हैं
बतियाने का, किसी को कुछ कहने का
किसी को सुन पाने का
किसी को समझाने का
वक्त ही कहाँ है किसी के पास

फिर कहते हैं जिन्दगी सरल नहीं
हो भी कैसे सकती है


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