Friday, September 28, 2012


सज़दे के लिए उठता है 
ये दस्त हज़ार बार 
पर सोच के रुक जाता हूँ 
किसको करूं सलाम 

उनके आने का गुमां सा होता है 
न जाने कितनी बार 
पर सोचता हूँ हर बार 
शायद हसीं ख्वाब ना हो 

मानी थीं मन्नतें 
जो उनके 
अहले कर्म की
अब तो है यही इल्तज़ा
की वो ख़ुदा को ना याद हों 

है गर्दिशे अय्याम 
कुछ रास यूं आया 
आरज़ू है कि 
और कोइ मुकां ना हो 

उम्मीदों कि लाश पे 
खड़ी है ये
जर्ज्रे जिंदगी
है कौन इसका वाली
ना मालूम 
कब रूह फ़ना हो 

जद्दोजहद क्या करे 
"घायल" अब मौत से
जब सांझ ढल चुकी है 
तो क्यूं ना रात हो 

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